मेरठ का एक गांव जहां लोग नहीं मनाते दशहरा, दशहरे को नहीं मानते त्यौहार

एक गाँव ऐसा भी जहा लोग नहीं मनाते दशहरा, इसी दिन पेड़ पर लटका दिए गए थे आजादी के मतवाले
Meerut : मेरठ जिले का एक गाँव है गगोल जहां के लोग दशहरा नहीं मनाते इस गांव के लोगों का कहना है कि इस गांव में एक दो शतक से भी पुराना बरगद का पेड़ है जो किसी तीर्थस्थली से कम नहीं। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में अँग्रेजी हुकूमत के विरोध में लगने वाली पंचायत का यह उन दिनों केंद्र बिंदु हुआ करता था। चूंकि यहां से अंग्रेजों की छावनी काफी दूर थी, इसलिए आजाद भारत की संकल्पना करने लोग यहां एकजुट हो जाते थे।
उनका कहना है कि यह बरगद का यह पेड़ गवाह रहा, कमल और रोटी के उस आंदोलन का अंग्रेजों के विरोध में बनने वाली तमाम रणनीतियों को इसने देखा है, किस तरह चूल्हे चौके में दिनभर गुजारने वाली महिला अपने देश के लिए चंडी का रूप धारण कर लेती है!
यह गांव क्रांतिकारियों का ठिकाना बन गया था। गांव में क्रांति की उठती चिंगारी की कानाफूसी कुछ जयचंदों ने अंग्रेजों से कर दी। ऐसे में 1857 में दशहरे के दिन जब सभी लोग त्योहारों में मगन थे, तभी अंग्रेजों ने 10 मई को क्रांति छेड़ने के बाद अंग्रेजी हुकूमत की नाक में दम करने के आरोप में पकड़े गए रामसहाय, घसीटा, रम्मन सिंह, हरजस, हिम्मत सिंह, कढ़ेरा सिंह, शिब्बा सिंह, बैरम और दरबा को जंजीरों में जकड़े घोड़े पर लेकर ब्रितानी सिपाही पहुंचे और एक-एक कर आजादी के इन नौ मतवालों को इसी पेड़ पर फांसी दे दी गई। कुछ देर बाद ही इसकी खबर पूरे गांव में फैल गई। और लोगों ने निश्चय किया कि आज के बाद हम दशहरा कभी नहीं मानेंगे तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि लोग दशहरा नहीं मानते ना ही इसको त्यौहार मानते हैं!