भ्रष्टाचार की चपेट में शिक्षा विभाग, नैतिकता और शिष्टाचार की उम्मीद करना कितना उचित? कर्मवीर नागर, प्रमुख

ग्रेटर नोएडा:- भारत को यदि “विश्वगुरु” बनने का सपना साकार करना है, तो उसकी नींव शिक्षा व्यवस्था में पारदर्शिता, नैतिकता और ईमानदारी होनी चाहिए। लेकिन जब वही शिक्षा विभाग भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हो, जहां से देश की भावी पीढ़ी चरित्र और ज्ञान की शिक्षा लेकर राष्ट्र निर्माण का सपना देखती है, तो ऐसे में नई पीढ़ी से ईमानदारी, शिष्टाचार और आदर्श समाज की अपेक्षा करना एक बेमानी कल्पना बन जाती है।
देश में अनेक युवाओं ने शिक्षा विभाग की नाकामी को अपने प्रारंभिक जीवन में ही देख लिया है—गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों की खुलेआम मनमानी, आरटीई जैसे कानूनों की धज्जियां, निजी स्कूलों की मनमानी फीस वसूली और अधिकारियों की खामोशी, मान्यता फाइलों में रिश्वत का बोलबाला—इन तमाम कड़वी सच्चाइयों ने बच्चों के मन में यह धारणा बैठा दी है कि व्यवस्था में ईमानदारी का कोई मूल्य नहीं बचा है।
शिक्षा विभाग में बेलगाम भ्रष्टाचार: सिस्टम की खामोशी या मिलीभगत?
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की “जीरो टॉलरेंस नीति” के बावजूद शिक्षा विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार न केवल इस नीति की पोल खोलता है, बल्कि यह भी उजागर करता है कि विभागीय स्तर पर पारदर्शिता की कितनी कमी है।
गौतम बुद्ध नगर जैसे प्रगतिशील जनपद में भी शिक्षा विभाग की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। हाल ही में तैनात दोनों जिला स्तरीय शिक्षा अधिकारियों से जनता को सुधार की उम्मीदें थीं, लेकिन समय के साथ वे भी पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं। निजी स्कूलों की मनमानी, अवैध स्कूलों की बाढ़ और आरटीई के नियमों की खुली अनदेखी इस बात का प्रमाण हैं कि विभाग पर शासन के आदेशों का कोई विशेष प्रभाव नहीं रहा।
गैर मान्यता प्राप्त स्कूल: सिस्टम का मज़ाक
गौतम बुद्ध नगर में सीबीएसई और यूपी बोर्ड की बिना मान्यता के न केवल स्कूल चल रहे हैं, बल्कि हाई स्कूल और इंटरमीडिएट स्तर तक की कक्षाएं भी धड़ल्ले से संचालित की जा रही हैं। ऐसे स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों से मोटी रकम लेकर उन्हें मान्यता प्राप्त स्कूलों के माध्यम से बोर्ड परीक्षा में बैठाने का चलन बन गया है। यह सारा खेल शिक्षा विभाग की जानकारी में है, लेकिन फिर भी कोई सख्त कार्रवाई नहीं की जाती—यह खुद में व्यवस्था की मिलीभगत को दर्शाता है।
मान्यता प्रक्रिया में भी भ्रष्टाचार का बोलबाला
यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब मान्यता प्राप्त करने के लिए भी निजी संस्थानों को भ्रष्टाचारी रास्तों से गुजरना पड़ता है। जिन संस्थानों के पास सभी दस्तावेज़ और योग्यताएं हैं, उन्हें भी फाइल पास कराने के लिए “चढ़ावा” देना पड़ता है। अन्यथा फाइलों को महीनों तक दबाकर रखा जाता है।
नियंत्रण नहीं, संरक्षण मिला हुआ लगता है निजी स्कूलों को
एक दौर था जब शिक्षा विभाग के निरीक्षण में आने से ही स्कूल प्रशासन में हड़कंप मच जाता था, लेकिन आज उच्चाधिकारियों की उपस्थिति भी कोई फर्क नहीं डालती। निजी स्कूलों में ना आरटीई लागू होता है, ना फीस नियंत्रण कानून। कारण स्पष्ट है—निजी स्कूलों और अधिकारियों के बीच गठजोड़, जिसकी कीमत चुकानी पड़ रही है गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों को।
राम मंदिर से राष्ट्रनिर्माण तक—शिक्षा की भूमिका
आज जब देश अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण कर चुका है, तो उससे जुड़ी नैतिक शिक्षा का प्रसार भी अत्यंत आवश्यक हो गया है। राम के आदर्शों—ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता, त्याग और शिष्टाचार—को आत्मसात करने वाली पीढ़ी तभी तैयार होगी जब शिक्षा विभाग स्वयं उस मार्ग पर चले। लेकिन जब शिक्षा की नींव ही भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो, तो रामराज्य की कल्पना एक कोरी कहानी बन जाती है।
निष्कर्ष: शिक्षा विभाग में सुधार नहीं, तो भविष्य अधर में
देश की आत्मा यदि शिक्षा है, तो शिक्षा विभाग उसका आधार। यदि यही आधार भ्रष्टाचार से खोखला हो, तो समाज में नैतिक पतन और निराशा का माहौल फैलना स्वाभाविक है। सरकारों को चाहिए कि वे न केवल भ्रष्टाचार के विरुद्ध जीरो टॉलरेंस की नीति को सख्ती से लागू करें, बल्कि शिक्षा विभाग में ईमानदार अधिकारियों की नियुक्ति, पारदर्शी मान्यता प्रक्रिया और आरटीई जैसे कानूनों का कठोर पालन सुनिश्चित करें।
जब तक शिक्षा विभाग में ईमानदारी बहाल नहीं होगी, तब तक भावी पीढ़ी से ईमानदारी और शिष्टाचार की उम्मीद रखना व्यर्थ है। अब समय आ गया है कि हम 'हमाम में सब नंगे हैं' जैसे तर्कों से बाहर निकलें और जिम्मेदारी तय करें—तभी सच्चे अर्थों में हम एक शिक्षित, सशक्त और नैतिक भारत की ओर अग्रसर हो सकेंगे l